जाने बिहार को: नवरात्र में होने वाले पारंपरिक लोक-नृत्य झिझिया को देख डांडिया गरबा को भूल जायेंगे
पूरे देशभर में दुर्गा पूजा को धूमधाम से मनाया जा रहा है, जगह-जगह पंडाल सजे हुए हैं। पंडालों में दुर्गा मां की मूर्तियां सुशोभित हैं। श्रद्धालु अपने मनोकामनाओं को पूरा करने और जीवन को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिए दुर्गा मां की पूजा-अर्चना कर रहे हैं।
इन्हीं खुशनुमा माहौल के बीच बिहार समेत देश के अनेक जगहों पर गरबा और डांडिया का आयोजन किया जाता आ रहा है, किया भी जाना चाहिए लेकिन हमें अपनी संस्कृति और लोक परंपराओं को जीवित रखना भी जरूरी है। ऐसे में आज के इस पोस्ट में हम नवरात्र के दौरान मिथिलांचल के कोने-कोने में होने वाले पारंपरिक लोक-नृत्य ‘झिझिया’ के बारे में जानेंगे।
क्या है झिझिया
बिहार के मिथिलांचल इलाके में खास तौर पर दुर्गापूजा में शाम को आरती के बाद माँ के पंडालों एवं पूजा परिसरों में मिथिला की लोक पारंपरिक नृत्य झिझिया किया जाता है। इस दौरान देवी मां का पचरा ‘निमिया के डार मैया लागेली झुलनवा कि झूली झूली ना एवं झूला गीत ‘झूला लागल बा निमिया के डार झुलेली मैया झूम-झूम कर पर झिझिया किया जाता है।
मिथिला के महान महाकवि विद्यापति की रचना ‘जय जय भैरवी असुर भयावनि को श्रोताओं द्वारा खूब पसंद किया जाता है, वहीं सुदर्शन जी महाराज द्वारा लिखित मैया ‘तू दरस दिखा दे भी लोगों द्वारा खूब पसंद किया जाता है। झिझिया गीत तोहरे भरोसे बरहम बाबा झिझिया बनवली हो, जैसे गीतों से भक्ति की गंगा बहती रहती है।
झिझिया मिथिलांचल का एक प्रमुख लोक नृत्य है जो आज केवल गांव में ही सिमट कर रह गया है, दुर्गा पूजा के मौके पर इस नृत्य में गांव की लड़कियां बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है। मिथिलांचल के इस नृत्य में कुवारीं लड़कियां अपने सिर पर जलते दिए एवं छिद्र वाली घड़ा को लेकर नाचती हैं। झिझिया नृत्य राजा चित्रसेन एवं उनकी रानी के प्रेम प्रसंगों पर आधारित है। बिहार की इस नृत्य विधा को अब लोगों के बीच पहचान दिलाने की जरूरत है, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी संस्कृति को जान व पहचान सके।


